
नेपाल में हुईं हिंसक झडपें
नेपाल में राजशाही और लोकशाही के बीच हिंसक झड़पें जारी हैं. शुक्रवार को काठमांडू की हिंसा में दो जानें गईं. इस समय नेपाल की यात्रा भारतीयों के लिए तो कतई सुरक्षित नहीं है. वहां हर झड़प और हिंसा के पीछे भारत का हाथ देखा जाता है. ऐसे में भारतीयों के लिए नेपाल जाना, खासकर दूरस्थ इलाक़ों में, ठीक नहीं है. वर्ष 2012 में जब नेपाल में कम्युनिस्ट बाबूराम भट्टराई प्रधानमंत्री थे और राम बरन यादव राष्ट्रपति तब भी नेपाल में हिंसक झड़पें हो रही थीं. भारत-नेपाल की किसी भी सीमा से काठमांडू अथवा पोखरा जाना सुरक्षित नहीं था. उस समय की यह हिंसा मैंने देखी थी. सड़क मार्ग पर जगह-जगह भारतीयों के लिए खतरा रहता है. नेपाल के पहाड़ी इलाकों में माओवादियों का असर बहुत अधिक है. अगर किसी मोड़ पर अकेले फंस गए तो कुछ भी हो सकता है. नेपाल पुलिस किसी को भी सुरक्षा देने में असमर्थ प्रतीत होती है. वह अधिक से अधिक काठमांडू में ही क़ानून का पालन करवाने में सक्षम है.
गुरखा में माओवादी
दूसरी बार काठमांडू मैं गोरखपुर होकर गया और तब भी लुम्बिनी से मनोकामिनी तक का रास्ता ऐसा ही असुरक्षित था. संयोग से उस समय भी कम्युनिस्ट सरकार थी. प्रधानमंत्री पुष्प कुमार दहल प्रचंड और राष्ट्रपति राम बरन यादव थे. हम जब नेपाल सीमा में पहुंचे उस दिन सरकार गिर गई और शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बने तथा राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी चुनी गईं. उस समय भी हमारे प्रतिनिधि मंडल को नेपाल सेना की विशेष सुरक्षा दी गई. नेपाल का गुरखा ज़िला माओवादियों का अड्डा समझा जाता है. यह ज़िला पहाड़ियों और जंगलों से घिरा हुआ है. यहीं चितवन का जंगल निकट है, जहां शिकार की वैधता है. इसी क्षेत्र में माओवादियों और सरकार की झड़प में 17 हज़ार लोग मारे गए थे. ऐसा कहा जाता है कि चीन इसी क्षेत्र से नेपाल में घुसपैठ करता है. नेपाल की मुख्य सड़क इसी ज़िले से होकर गुजरती है.
नेपाल जाना असुरक्षित
इसीलिए नेपाल जाने वाले भारतीय यात्रियों को इस दौरान नेपाल जाने से बचना चाहिए. मुझे नेपाल की उन दिनों की याद है जब नेपाल घूमने की मेरी चाह ने मुझे काफ़ी परेशान किया था. मैं वर्ष 2012 में अपनी गाड़ी से काठमांडू गया था. परिवार साथ में था. उस समय हमने सिद्धार्थ नगर के बढ़नी बॉर्डर से नेपाल के कृष्णा नगर में प्रवेश किया था. मेरे पास चार दिनों का भंसार (अनुमति पत्र) था. जब हम काठमांडू से लौट रहे थे तब मनोकामिनी घाट पहुंचते-पहुंचते धूप ढलने लगी थी. मनोकामिनी के बाद रास्ता जंगली और बियाबान था तथा गोरखा के इस ज़िले में भारतीयों के प्रति घृणा का भाव. पेट्रोल पम्पों में मुझे पेट्रोल नहीं दिया गया. बहुत अनुनय-विनय करने पर 10 लीटर पेट्रोल मिला. किसी तरह सात बजे के आसपास हम पोखरा पहुंच पाए. हर क्षण गाड़ी में फ़्यूअल खत्म होने का अंदेशा था. घुमावदार पहाड़ी रास्तों से जब हम पोखरा पहुंचे तब मन खिल उठा.
पोखरा ने मन मोह लिया
पोखरा पहुंच कर लगा, हम अचानक से सुंदर स्थान पर आ गए हैं. चारों ओर आसमान में बर्फ़ से आच्छादित चोटियों पर डूबते सूर्य की रश्मियां अठखेलियां कर रही थीं. ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों ये स्वर्ण शिखर हों. हम मंत्रमुग्ध से देखते रहे. निर्धारित होटल में पहुंचे. सामान रखा और फेवा झील घूमने निकले. बोटिंग बंद हो चुकी थी. यहां भी काठमांडू की तरह वेज खाना काफ़ी ढूंढने के बाद मिला. एक जगह नेपाली वेज थाली मिली. पर उसका टेस्ट ग़ज़ब का था. सुबह जल्दी उठे. खिड़की खोली तो देखा खिड़की के बाहर सामने बर्फ़ की चोटियां हमारे कमरों में प्रवेश को आतुर हैं. हम जल्दी-जल्दी तैयार होकर फेवा झील की तरफ़ गए और उसके बाद शांति स्तूप देखने चले गए. यह काफ़ी ऊंचाई पर बना बौद्ध स्तूप है. डेढ़ सौ सीढ़ियां चढ़कर हम इस तिब्बती शांति स्तूप पर पहुंचे. वहां हमारे अलावा एक अमेरिकन जोड़ा और था. एक मैगी की दुकान थी, जिसमें सॉफ़्ट ड्रिंक और चाय-काफ़ी भी मिलती थी. नेपाल में रहने की हमारी अनुमति समाप्त हो चुकी थी, इसलिए हम फटाफट निकले.
भारत को गालियां
यहां से बुटवल 77 किमी था और पूरा रास्ता चढ़ाई-उतराई का. हम आगे बढ़े. रास्ता जंगली और अंधे मोड़ों से भरा. उस समय नेपाल में बाबूराम भट्टराई की सरकार थी. उनके सहयोगी कम्युनिस्ट नेता उन्हें दबाए थे. नेपाल के इस पश्चिमी इलाके की पहाड़ियों का यह गोरखा जिला घनघोर भारत विरोधी. जगह-जगह नीले अक्षरों से भारत और भारतीय सेना को गालियां लिखी हुई थीं. हम सबको बुरा भी लग रहा था और भय भी. क्योंकि हमारी गाड़ी का नम्बर यूपी, इंडिया का था. अब मुझे लगा कि बेहतर रहता हम नम्बर प्लेट वह लगा लेते जो नेपाल के परिवहन विभाग ने हमें देवनागिरी अक्षरों व अंकों वाली दी थी. पर अब क्या हो सकता था? रास्ते में जो भी गांव पड़ते, वहां के निवासी हमें घूरते. हम दो-ढाई घंटे में बुटवल आ गए तब जान में जान आई. वहां चाय पी गई. शाम के पांच बज रहे थे और अभी बॉर्डर 60-70 किमी था, इसलिए मैंने गाड़ी भगाई.
ओवर टेकिंग करने में फ़ंसे
कृष्णा नगर बॉर्डर से थोड़ा पहले हाई-वे पर पुलिस वाले कानवाई लगा रहे थे. मैने जल्दबाजी में गाड़ी रॉन्ग साइड ओवरटेक कर बैरिकेडिंग के पास जा कर लगा दी. इंस्पेक्टर ने आकर रोक दिया और गाड़ी साइड करने को कहा. मैंने गाड़ी किनारे पर लगा दी. उसने कहा, चालान होगा. मैंने कहा, क्यों? बोला, आपने ग़लत तरीके से ओवरटेकिंग की. इंस्पेक्टर की वर्दी पर लगी नेम प्लेट में अरुण कुमार यादव लिखा था. मैंने कहा, यादव जी, अब बॉर्डर के पास काहे पंगा कर रहे हो? मुझे जाने दो. उसने कहा चालान तो कटेगा. वह भी दो हज़ार नेपाली रुपए. मैंने उससे कहा, कि यादव जी यह बहुत है, कुछ ले-देकर ख़त्म करो. बोला, यह इंडिया नहीं है. मैंने कहा, देखो हमारे इंडियन स्टेट का चीफ मिनिस्टर यादव और पूरा यूपी यादवों से भरा है. शादी-विवाह करने तो हमारे यहां ही आओगे. बोला, आपको रिश्वत देने में जेल हो सकती है. मैंने कहा- चलो भेज दो. 15-20 दिन पूरे परिवार को तुम्हारी सरकार खिलाये-पिलाएगी फिर छोड़ देगी. चलो जेल भेजो. अब वह मुस्कुराया और बोला- जाइए आप. लगा जान में जान आई.
संसदीय राजतंत्र 1990 में आया
नेपाल में 2008 से संसदीय लोकतंत्र बहाल हुआ था, जबकि वहां 1768 से राज तंत्र चला आ रहा था. यद्यपि राजा बीरेन्द्र बीर विक्रम शाह ने निर्वाचित सरकार के गठन की मंज़ूरी 1990 में दी. वे 1972 से नेपाल के राजा की गद्दी पर बैठे थे, अपने पिता महेंद्र बीर बिक्रम शाह की मृत्यु के बाद. राजा बीरेन्द्र अपने दोनों पड़ोसियों भारत और चीन के बीच संतुलन बना कर रखते थे. राजकाज संभालने के बाद अक्टूबर 1973 में वे भारत आए और दो महीने के भीतर ही चीन भी गए. 1980 के आसपास कुछ राजनीतिक पार्टियों ने देश में संवैधानिक सुधार लाने के लिए आंदोलन किया. मई 1980 में रेफरेंडम हुआ और 55 प्रतिशत लोगों ने राजा के हक़ में राजनीतिक दल विहीन सरकार की इच्छा प्रकट की. किंतु राजा ने ख़तरों को भांप कर राजनीतिक दलों के नेताओं को गिरफ्तार करवा लिया, लेकिन 1990 आते-आते राजा ने राजनीतिक दलों को आजादी दे दी.
राज परिवार पर खूनी हमला
नवंबर 1990 में राजा बीरेन्द्र बीर बिक्रम शाह ने संसदीय राजशाही घोषित कर दी और चुने गए लोगों को सरकार बनाने का रास्ता साफ़ कर दिया. कृष्ण प्रसाद भट्टराई इस सरकार के मुखिया बने. इसी बीच नेपाल गहरे गृह युद्ध में फ़ंस गया और 1996 से 2006 तक सरकार और माओवादियों के बीच हिंसक झड़पें हुईं. इस सिविल वार में 17 हज़ार लोग मारे गए. इसी बीच 2001 में नेपाल के राजमहल में खूनी संघर्ष हुआ, जिसमें राजा बीरेन्द्र और महारानी समेत उनके परिवार के सभी लोग मारे गए. उनके भाई ज्ञानेंद्र नए राजा बने. मगर उनकी सत्ता कमजोर थी. राजमहल में हुए खूनी संघर्ष में जनता ने उन्हें ही ज़िम्मेदार माना और 2008 में राजा ज्ञानेंद्र ने इस्तीफा दे दिया. कई दलों की मिली-जुली सरकार बनी. प्रचंड प्रधानमंत्री बने. संविधान सभा के जरिए सरकार चलाई जाने लगी.
हिंदू राष्ट्र का दर्जा ख़त्म
2008 से अब तक नेपाल में 11 प्रधानमंत्री बन चुके हैं. पर कोई भी न तो राजनैतिक स्थिरता दे सका न देश को गरीबी, बदहाली और बेरोजगारी से उबार सका. नेपाल में हिंदू आबादी 81 प्रतिशत के क़रीब है. 2008 के पहले तक वह विश्व का इकलौता हिंदू राष्ट्र था. पर राजा के इस्तीफ़े के साथ ही नेपाल की संविधान सभा ने नेपाल को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनाने का निर्णय लिया. साथ ही चीन का दख़ल भी बढ़ता रहा. यहां की जीयो पॉलिटिक्स महत्वपूर्ण है इसलिए अमेरिका भी वहां दख़लंदाज़ी करता रहता है. भारत सरकार उसे अपने और चीन के बीच का बफ़र स्टेट मानती है. भारत की सरकारों को भी नेपाल का किसी और देश के नज़दीक जाना रास नहीं आएगा. 2008 के बाद से नेपाल में कम्युनिस्ट दलों के नेता कई बार प्रधानमंत्री बने हैं, पर वे भी नेपाल को बदहाली से नहीं उबार सके.
लोकतांत्रिक नेताओं के भ्रष्टाचार
इसकी एक वजह तो नेपाल में सभी राजनीतिक दलों के नेता भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं. नेपाल में नया संविधान 2013 में लागू हुआ मगर उसके बाद से राष्ट्र प्रमुख और सरकार प्रमुख अलग-अलग झुकाव वाले रहे. इसलिए जनता को राजा ज्ञानेंद्र में अधिक संभावनाएं दिख रही हैं. यह भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि गोरखपुर के गोरख मठ का नेपाल में बहुत अधिक असर है और कुछ वर्ष पहले 2018 की दिसंबर में राम बारात लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नेपाल के जनकपुर गए थे. यह एक धार्मिक यात्रा थी. पोखरा से लेकर बीरगंज तक के क्षेत्र में हिंदूवादी संगठन काम कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियां भी नेपाल में हैं और वे भारत विरोधी हरकतों से बाज नहीं आतीं. प्रधानमंत्री केपी शर्मा औली एक कमजोर प्रधानमंत्री हैं. उन पर चीन का काफ़ी असर है.